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लोकतंत्र की कसौटी पर न्यायपालिका और विधायिका में टकराव

तमिलनाडु राज्य बनाम राज्यपाल प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय ने केंद्र और राज्यों के बीच की संवैधानिक सीमाओं पर एक बार फिर बहस छेड़ दी है। न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा लंबित रखे गए 10 विधेयकों को स्वीकृत मानते हुए उन्हें प्रभाव में लाने का आदेश दिया, साथ ही तीन माह की समयसीमा भी तय की। यह निर्णय संघीय संरचना की व्याख्या के लिए एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हो सकता है, परंतु इससे न्यायपालिका द्वारा विधायिका के अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप का गंभीर प्रश्न भी उठता है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ द्वारा इस निर्णय की सार्वजनिक आलोचना करना इस टकराव को और तीव्र करता है। वे स्वयं संवैधानिक पद पर हैं और इस पद की मर्यादा उन्हें राजनीतिक टिप्पणी से दूर रहने की अपेक्षा करती है। किंतु उन्होंने जिस प्रकार न्यायिक सक्रियता को लोकतांत्रिक संतुलन के विरुद्ध बताया, उससे यह स्पष्ट है कि विधायिका न्यायपालिका की बढ़ती भूमिका को एक खतरे के रूप में देख रही है।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए यह आदेश पारित किया गया, जिससे उसे ‘पूर्ण न्याय’ सुनिश्चित करने का अधिकार मिलता है। परंतु समस्या तब उत्पन्न होती है, जब यह अनुच्छेद विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में भी हस्तक्षेप करने का माध्यम बन जाता है। यह अधिकार यदि निरंकुश हो जाए, तो इससे सत्ता का असंतुलन उत्पन्न हो सकता है, जो लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के प्रतिकूल है।

राज्यपालों को अनुच्छेद 200 के तहत प्राप्त अधिकारों की कोई स्पष्ट समयसीमा नहीं होती। राज्यपाल की भूमिका केवल औपचारिक नहीं होती, वह एक विवेकाधिकार भी निभाता है। इसलिए जब न्यायालय तीन माह की समयसीमा निर्धारित करता है, तो यह राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका को सीमित करता है। इससे केंद्र-राज्य संबंधों में नया तनाव उत्पन्न हो सकता है, खासकर तब जब राज्य सरकारें राजनीतिक उद्देश्यों से विधेयक पारित करती हैं।

इन विधेयकों में से एक का संबंध कुलपति की नियुक्ति से है, जिसमें राज्यपाल की भूमिका को समाप्त करने का प्रयास किया गया। इस प्रकार के विधेयकों के पीछे राजनीतिक मंशा हो सकती है, जिसे न्यायालय द्वारा बिना विमर्श के स्वीकार करना संघीय व्यवस्था को कमजोर करता है। राज्यपाल को निष्क्रिय बनाकर एकतरफा निर्णय थोपना संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप नहीं कहा जा सकता।

संविधान का अनुच्छेद 355 केंद्र को यह दायित्व सौंपता है कि वह राज्य सरकारों को संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप कार्य करने हेतु प्रेरित करे। इसी कारण राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। परंतु जब न्यायालय राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को समयसीमा में बांधता है, तो यह कार्यपालिका के निर्णयात्मक अधिकारों का अतिक्रमण बनता है, जिससे न्यायपालिका स्वयं ‘सुपर लेजिस्लेचर’ की भूमिका में आ जाती है।

इस प्रकार की न्यायिक सक्रियता का परिणाम यह हो सकता है कि संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप करने लगें। उदाहरण के लिए, कर्नाटक में मुसलमानों को आरक्षण देने वाले विधेयक को राज्यपाल ने राष्ट्रपति के पास भेजा है। यदि शीर्ष अदालत की व्याख्या के अनुसार राष्ट्रपति को समयसीमा में निर्णय लेना बाध्यकारी होगा, तो यह विधेयक संविधानविरोधी होने के बावजूद प्रभाव में आ सकता है। यह एक संवैधानिक संकट को जन्म देगा।

विधायिका के कार्यों पर न्यायालय की समयपूर्व दखल की प्रवृत्ति पहले भी दिखी है – जैसे कृषि कानूनों पर रोक, या एनजेएसी को रद्द करना। यह सब न्यायपालिका की उस बढ़ती प्रवृत्ति का संकेत है, जिसमें वह नीति निर्माण में हस्तक्षेप कर विधायिका के अधिकारों को चुनौती देती है। यह लोकतांत्रिक संतुलन के लिए खतरे की घंटी है।

न्यायपालिका का यह अधिकार कि वह संविधान की व्याख्या करे, उसे सर्वाधिकारवादी नहीं बनाता। उसे अपनी सीमाओं का सम्मान करना होगा, वरना लोकतंत्र में शक्ति संतुलन का आधार कमजोर हो जाएगा। लोकतंत्र केवल संस्थाओं का समूह नहीं है, बल्कि उनकी परस्पर मर्यादाओं के सम्मान पर टिका है। यदि न्यायालय स्वयं विधायिका का स्थान लेने लगे, तो यह व्यवस्था तानाशाही की ओर बढ़ सकती है।

अतः इस स्थिति में जरूरी है कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका तीनों ही संविधान द्वारा निर्धारित अपने-अपने कार्यक्षेत्र में रहें। लोकतंत्र का सच्चा सम्मान तभी होगा जब सभी संस्थाएं एक-दूसरे के अधिकारों का आदर करते हुए संविधान के अनुसार कार्य करें। न्यायिक अतिक्रमण की प्रवृत्ति को सीमित करना ही वर्तमान समय की सबसे बड़ी संवैधानिक आवश्यकता बन गई है।

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