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राजनीतिक त्रिकूट और पश्चिम में संकट

पश्चिमी लोकतंत्रों में वर्तमान संकट और ‘राजनीतिक त्रिकूट सिद्धांत’ के बीच एक गहरा संबंध देखा जा रहा है। वैश्वीकरण, राष्ट्रीय संप्रभुता और जनतांत्रिक राजनीति के बीच संतुलन बनाने का प्रयास विफल हो रहा है, जिससे गहन ध्रुवीकरण, लोकतांत्रिक संस्थाओं में अविश्वास और उग्र राष्ट्रवाद उभरकर सामने आ रहे हैं। इन घटनाओं ने न केवल राजनीतिक स्थिरता को चुनौती दी है, बल्कि सामाजिक संरचना को भी विभाजित कर दिया है। इसी पृष्ठभूमि में, दानी रोड्रिक का प्रस्तुत ‘राजनीतिक त्रिकूट’ सिद्धांत अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होता है।

वर्ष 2000 में, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री दानी रोड्रिक ने अपने शोधपत्र “हाउ फार विल इंटरनेशनल इकोनॉमिक इंटीग्रेशन गो?” में यह तर्क प्रस्तुत किया कि कोई भी देश एक साथ वैश्वीकरण, राष्ट्रीय संप्रभुता और लोकप्रिय लोकतंत्र — इन तीनों को पूरी तरह नहीं अपना सकता। देशों को इनमें से केवल दो का ही चुनाव करना पड़ता है। इस सिद्धांत के अनुसार, यदि कोई देश वैश्वीकरण और लोकतंत्र को साथ बनाए रखना चाहता है, तो उसे अपनी संप्रभुता के कुछ हिस्से का परित्याग करना पड़ेगा।

यूरोपीय संघ इस पहले विकल्प का प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत करता है। इसके सदस्य राष्ट्रों ने साझा आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के लिए अपने कई नीतिगत अधिकारों, जैसे- मौद्रिक नीति, व्यापार और आप्रवासन नियंत्रण — का हस्तांतरण किया। हालांकि यूरोपीय संघ ने एक विशाल एकीकृत बाजार और उच्च आर्थिक विकास प्रदान किया, लेकिन फिर भी इसके भीतर असमान अवसरों और सांस्कृतिक असुरक्षा की भावना ने व्यापक असंतोष को जन्म दिया। परिणामस्वरूप, ब्रेक्जिट और दक्षिणपंथी दलों के उदय जैसे घटनाक्रम देखने को मिले, जो वैश्वीकरण और लोकतंत्र दोनों के प्रति आक्रोश को दर्शाते हैं।

दूसरा विकल्प वैश्वीकरण और संप्रभुता को बनाए रखते हुए जन भागीदारी को सीमित करना है। इसमें सरकारें तकनीकी दृष्टिकोण अपनाती हैं, जहां आर्थिक नीतियां स्वतंत्र केंद्रीय बैंकों और स्वायत्त नियामक संस्थाओं द्वारा निर्धारित की जाती हैं, जो जनमत के प्रभाव से मुक्त होती हैं। हालांकि इससे विदेशी निवेशकों का भरोसा कायम रहता है, परंतु इससे लोकतंत्र का क्षरण होता है। उदाहरणस्वरूप, केन्या में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा थोपे गए कठोर राजकोषीय अनुशासन के चलते जनता में भारी असंतोष देखा गया, जिससे यह मॉडल भी संप्रभुता और लोकतंत्र दोनों के लिए हानिकारक साबित हुआ।

तीसरा विकल्प, जिसे रोड्रिक ने ‘ब्रेटन वुड्स समझौता’ कहा, राष्ट्रीय संप्रभुता और लोकतंत्र को प्राथमिकता देते हुए वैश्वीकरण को सीमित करना है। भारत जैसे कई विकासशील देशों ने इस मार्ग का चयन किया है। स्वदेशी औद्योगिक नीतियों, विदेशी निवेश पर नियंत्रण और सीमित वैश्विक एकीकरण के माध्यम से इन्होंने घरेलू अर्थव्यवस्था को बढ़ावा दिया। चीन और पूर्वी एशियाई देशों ने भी इसी प्रकार वैश्वीकरण के तत्वों को सावधानीपूर्वक अपनाते हुए जबरदस्त आर्थिक वृद्धि दर्ज की, लेकिन राजनीतिक स्वतंत्रता पर सख्त अंकुश लगाया।

पश्चिमी लोकतंत्रों का संकट इस त्रिकूट के संतुलन को साधने में विफलता का परिणाम है। दशकों तक, पश्चिमी देश यह मानते रहे कि वे वैश्वीकरण, संप्रभुता और लोकतंत्र — तीनों को एक साथ साध सकते हैं। लेकिन वैश्वीकरण के कारण पारंपरिक औद्योगिक क्षेत्रों में रोजगार का नुकसान हुआ, जिससे आर्थिक असुरक्षा और सामाजिक असंतोष फैला। इसने जमीनी स्तर पर भेदभाव को जन्म दिया, जिसे लोकलुभावन नेताओं ने अपनी राजनीति का आधार बनाया।

लोकलुभावन नेतृत्व ने वैश्वीकरण-विरोधी नीतियों, संरक्षणवाद और प्रवास नियंत्रण जैसे उपायों को बढ़ावा दिया। इस प्रक्रिया में, न केवल वैश्विक सहयोग के प्रयासों को नुकसान पहुंचा, बल्कि घरेलू लोकतांत्रिक संस्थाओं में भी गहरा अविश्वास पैदा हो गया। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, नीदरलैंड्स में गीर्ट वाइल्डर्स और हंगरी में विक्टर ऑर्बन जैसे नेताओं का उदय इसी प्रतिक्रिया का परिणाम है। इन नेताओं ने वैश्वीकरण के परित्याग और संकीर्ण राष्ट्रवाद के विचारों को बल प्रदान किया।

रोड्रिक का त्रिकूट सिद्धांत आज पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। देश यदि वैश्वीकरण को आगे बढ़ाते हैं, तो या तो उन्हें जनतंत्र का त्याग करना पड़ता है या संप्रभुता का। यदि वे लोकतंत्र और संप्रभुता को बनाए रखते हैं, तो वैश्वीकरण का दायरा सीमित करना पड़ता है। लेकिन यदि तीनों को एक साथ साधने का प्रयास किया जाता है, तो परिणामस्वरूप असंतोष, सामाजिक अशांति और संस्थागत संकट उत्पन्न होता है। यही संकट आज पश्चिमी विश्व के समक्ष खड़ा है।

पश्चिम को अब एक नई राह तलाशनी होगी, जिसमें आर्थिक लाभ अधिक व्यापक रूप से वितरित हों और लोकतांत्रिक संस्थाएं सभी नागरिकों की आकांक्षाओं के प्रति उत्तरदायी बनें। इसके लिए मात्र लोकलुभावनवाद की ओर झुकाव या सरकारी संरचनाओं के अंधाधुंध ध्वंस से काम नहीं चलेगा। आवश्यक है कि वैश्वीकरण के लाभों को समावेशी बनाया जाए और सामाजिक सुरक्षा तंत्र को मजबूत किया जाए, ताकि आर्थिक असुरक्षा को समाप्त किया जा सके।

निष्कर्षतः, राजनीतिक त्रिकूट का सिद्धांत हमें यह चेतावनी देता है कि वैश्वीकरण, संप्रभुता और लोकतंत्र के बीच चयन अवश्यंभावी है। पश्चिमी देशों के सामने अब यह चुनौती है कि वे इन जटिलताओं को समझते हुए नीतिगत संतुलन बनाएं। यदि वे असफल रहे, तो सामाजिक अस्थिरता और आर्थिक गिरावट अपरिहार्य होगी। इस संकट से उबरने के लिए विवेकपूर्ण, समावेशी और दूरदर्शी नेतृत्व की आवश्यकता है, जो आधुनिक विश्व व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान कर सके।

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