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असली भारतीय मध्यस्थ को सामने आना होगा

भारत की आर्थिक प्रगति ने वाणिज्यिक विवादों में वृद्धि को अपरिहार्य बना दिया है। परंपरागत न्यायालय प्रणाली अपनी सीमाओं और विलंबकारी प्रवृत्तियों के कारण इन विवादों के शीघ्र समाधान में समर्थ नहीं दिखती। फलस्वरूप, वाणिज्यिक मध्यस्थता, विशेष रूप से संस्थागत मध्यस्थता, एक व्यवहारिक विकल्प के रूप में उभरी है। परंतु प्रश्न यह उठता है कि क्या भारतीय मध्यस्थता पारिस्थितिकी तंत्र वास्तव में अपनी लोकप्रियता को न्याय दे पा रहा है? इस विमर्श में पंचों की गुणवत्ता पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जो एक गंभीर शून्य उत्पन्न करता है।

किसी भी विधिक व्यवस्था की सफलता उसके संस्थागत ढांचे के साथ-साथ उसके मानवीय संसाधनों की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। भारतीय मध्यस्थता के संदर्भ में, यह मानवीय संसाधन मुख्यतः वकीलों तथा निर्णायक भूमिका निभाने वाले पंचों से निर्मित होता है। पंचों के ऊपर प्रक्रिया के संचालन से लेकर अंतिम निर्णय की गुणवत्ता सुनिश्चित करने तक का दायित्व होता है। इनकी दक्षता ही इस बात को तय करती है कि मध्यस्थता एक व्यवहार्य, निष्पक्ष और समयबद्ध विवाद समाधान प्रक्रिया बनती है अथवा नहीं।

दुर्भाग्यवश, भारतीय मध्यस्थता क्षेत्र में पंचों के विकास पर समुचित विमर्श का घोर अभाव है। यद्यपि वकीलों के कौशल-विकास हेतु अनेक पहलें चलाई गई हैं, लेकिन पंचों के पेशेवर प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण के लिए ऐसा उत्साह दृष्टिगोचर नहीं होता। मार्च 2024 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने इस गंभीर अंतराल की ओर ध्यान आकर्षित किया था कि भारतीय पंच अंतर्राष्ट्रीय विवादों में शायद ही कभी नियुक्त किए जाते हैं। यह चिंतन भारत की मध्यस्थता महत्वाकांक्षाओं के लिए एक चेतावनी है।

भारतीय मध्यस्थता व्यवस्था में “श्रेष्ठ पंच” की पारंपरिक छवि सेवानिवृत्त उच्चतम या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों तक सीमित रही है। न्यायालयों की नियुक्ति प्रवृत्ति, वकीलों और वादकारियों की धारणाओं ने इस विचार को पुष्ट किया है कि पूर्व न्यायाधीशों का न्यायिक अनुभव मध्यस्थता की गुणवत्ता का स्वाभाविक आश्वासन है। किन्तु वित्त मंत्रालय द्वारा जून 2024 में प्रस्तुत दिशा-निर्देशों ने इस मिथक को खंडित कर दिया, जिसमें निष्कर्ष निकाला गया कि न्यायालय-आधारित दृष्टिकोण ने मध्यस्थता को अनावश्यक रूप से जटिल और खर्चीला बना दिया है।

यह धारणा कि विधिक अथवा न्यायिक पृष्ठभूमि स्वयं में सक्षम पंचत्व का पर्याय है, संशोधन की अपेक्षा करती है। मध्यस्थता एक विशिष्ट कौशल है, जिसमें कानूनी विशेषज्ञता के साथ-साथ विवाद समाधान की प्रक्रिया का सुदक्ष प्रबंधन, लचीलापन, रचनात्मकता और अंतर्राष्ट्रीय मानकों की समझ आवश्यक है। पंचों को कठोर विधिक प्रक्रिया से इतर नवीनतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाते हुए विवादों को त्वरित, कुशल और निष्पक्ष ढंग से निपटाना पड़ता है, जो साधारण न्यायिक अनुभव से परे है।

मध्यस्थता में पंचों को विभिन्न राष्ट्रीयताओं, संस्कृतियों और विधिक परंपराओं से जुड़े सहपंचों के साथ परामर्श करना पड़ता है। इन आंतरिक विचार-विमर्शों में कुशल संवाद, सहमति निर्माण और सांस्कृतिक संवेदनशीलता जैसी सॉफ्ट-स्किल्स अनिवार्य हैं। भारतीय पंचों के लिए इन कौशलों का विकास आवश्यक है, ताकि वे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा सकें और वैश्विक स्तर पर भारत की मध्यस्थता प्रतिष्ठा को सुदृढ़ कर सकें।

इसके अतिरिक्त, न्यायिक निर्णय लेखन और मध्यस्थता निर्णय लेखन के बीच भी मौलिक भिन्नताएं हैं। मध्यस्थता में पंच को व्यापक साक्ष्य, विशेषज्ञ गवाहियों तथा जटिल वित्तीय विवरणों का सूक्ष्म परीक्षण कर, अत्यंत सटीक, तर्कसंगत और संतुलित निर्णय लिखना होता है। यह एक विशिष्ट लेखन शैली और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण की मांग करता है, जो मात्र न्यायालयीन अनुभव से स्वाभाविक रूप से विकसित नहीं होता।

इस परिप्रेक्ष्य में, भारतीय मध्यस्थता पारिस्थितिकी तंत्र को दो प्राथमिक सुधारों की आवश्यकता है। प्रथम, पंचों का विविधीकरण किया जाए, जिसमें विभिन्न विधाओं के विशेषज्ञों, जैसे- इंजीनियर, वित्त विशेषज्ञ, वैज्ञानिक — को भी सम्मिलित किया जाए। इससे निर्णय प्रक्रिया में विविध दृष्टिकोण और व्यावहारिक गहनता आएगी। द्वितीय, पंचों के लिए कठोर और संरचित प्रशिक्षण तथा प्रमाणन अनिवार्य किया जाए, जिससे वैश्विक मानकों के अनुरूप पेशेवर पंच तैयार हो सकें।

उन्नत प्रशिक्षण कार्यक्रमों, प्रमाणपत्र पाठ्यक्रमों और व्यावसायिक संघों के माध्यम से पंचों का निरंतर कौशल विकास सुनिश्चित करना होगा। मध्यस्थता को न्यायालयीन प्रक्रिया का “गौण विकल्प” मानने की प्रवृत्ति से उबरकर, इसे एक स्वतंत्र, विशिष्ट और सम्माननीय करियर पथ के रूप में प्रतिष्ठित करना आवश्यक है। तभी भारत एक ऐसा पंच समुदाय विकसित कर पाएगा जो न केवल घरेलू आवश्यकताओं को पूरा करेगा, अपितु वैश्विक मंचों पर भी अपनी निर्णायक उपस्थिति दर्ज कराएगा।

निष्कर्षतः, भारतीय मध्यस्थता का भविष्य उसकी मानव पूंजी की गुणवत्ता पर निर्भर करेगा। यदि भारत को अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता केंद्र बनने के अपने स्वप्न को साकार करना है, तो एक पेशेवर, प्रशिक्षित और विविधतापूर्ण पंच समुदाय का विकास अनिवार्य है। यह कार्य केवल विधिक ढाँचे में सुधार से संभव नहीं, अपितु पंचों में व्यावसायिक उत्कृष्टता और वैश्विक समझ विकसित कर ही संभव होगा। अब समय आ गया है कि भारतीय पंच अपने वास्तविक और वैश्विक स्थान को पुनः प्राप्त करें।

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