भारतीय नौकरशाही को बदलने की जरूरत
भारतीय नौकरशाही एक समय देश की नीतियों की धुरी हुआ करती थी, लेकिन आज यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या वह तेजी से बदलते भारत के अनुरूप स्वयं को ढाल पाई है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की टिप्पणी इसी पृष्ठभूमि में आई है कि नौकरशाही की भूमिका अब पारंपरिक नियामक से हटकर एक उत्प्रेरक की होनी चाहिए। यह बदलाव तभी संभव है जब अधिकारी मानसिक और कार्यसंस्कृति के स्तर पर नवाचार को आत्मसात करें।
आज की सरकार 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के उद्देश्य से कार्य कर रही है। यह लक्ष्य केवल राजनीतिक इच्छाशक्ति से नहीं, बल्कि प्रशासनिक दक्षता और परिणामोन्मुख कार्यसंस्कृति से ही संभव है। ऐसे में नौकरशाही का पुराना ढर्रा—जहां प्रक्रियाओं को प्राथमिकता दी जाती थी, परिणामों को नहीं—अब बाधा बनता जा रहा है। बदलते भारत को उत्तरदायी, गतिशील और जनसरोकारों से जुड़ी नौकरशाही चाहिए।
नौकरशाही के लिए सबसे बड़ी चुनौती है—अपनी गति और दृष्टिकोण में आमूलचूल परिवर्तन लाना। उसे अब केवल नीति क्रियान्वयन की मशीन नहीं, बल्कि नीति निर्माण की सक्रिय भागीदार बनना होगा। इसमें समयबद्धता, दक्षता, और डिजिटल उपकरणों का बेहतर उपयोग अनिवार्य है। पारदर्शिता और जवाबदेही अब केवल आदर्श नहीं, बल्कि आवश्यक शर्तें बन चुकी हैं।
देश के युवाओं की आकांक्षाएं और जीवन दृष्टि अब पारंपरिक दायरे से कहीं आगे निकल चुकी हैं। वे अब उद्यमिता और नवाचार के क्षेत्र में अवसर तलाशते हैं। ऐसे में नौकरशाही की भूमिका केवल अनुमति प्रदान करने तक सीमित नहीं रह सकती, बल्कि उसे नए उद्यमों के लिए मार्ग प्रशस्त करना होगा। अनुमति संस्कृति को सहयोगी संस्कृति में बदलना समय की मांग है।
विकास का समावेशी होना तभी संभव है जब ग्रामीण भारत, महिलाएं और सामाजिक रूप से वंचित वर्ग भी इसमें सहभागी बनें। इसलिए नीतियों का निर्माण केवल आंकड़ों के आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक यथार्थ और क्षेत्रीय संवेदनशीलता के अनुरूप होना चाहिए। नौकरशाही को इन तबकों की आकांक्षाओं को समझकर उन्हें क्रियान्वयन में केंद्र में रखना होगा।
आधुनिक तकनीकों जैसे कृत्रिम बुद्धिमत्ता, मशीन लर्निंग और डेटा एनालिटिक्स का प्रयोग प्रशासनिक कार्यप्रणाली में तेजी और पारदर्शिता ला सकता है। यदि नौकरशाही इन तकनीकों को सही मायने में आत्मसात करे तो निर्णय प्रक्रिया अधिक प्रभावी, त्वरित और उत्तरदायी बन सकती है। ई-गवर्नेंस का उद्देश्य केवल सुविधा नहीं, बल्कि प्रशासनिक पुनर्गठन भी है।
परिणामोन्मुखी कार्यशैली का अर्थ केवल योजनाओं की समयबद्ध पूर्णता नहीं, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि योजनाओं का वास्तविक लाभ उन तक पहुंचे, जिनके लिए वे बनाई गई हैं। इसके लिए नौकरशाही को अपने कार्य के सामाजिक प्रभाव को समझने की दृष्टि विकसित करनी होगी। जमीनी सच्चाई से जुड़ाव अब प्रशासनिक अनिवार्यता बन गया है।
यदि भारत वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर होना चाहता है, तो इसकी नौकरशाही को वैश्विक सोच और स्थानीय क्रियान्वयन का संतुलन साधना होगा। नीति निर्माण में बहु-क्षेत्रीय दृष्टिकोण, बहु-अनुशासनात्मक विशेषज्ञता और विविध सामाजिक समूहों की भागीदारी आवश्यक है। प्रशासन को अब केवल कार्यपालक नहीं, नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभानी होगी।
पुरानी कार्यशैली में निर्णय टालने की प्रवृत्ति, फाइलों में उलझाव और अस्पष्ट उत्तरदायित्व प्रशासनिक जड़ता को जन्म देते हैं। यदि यह प्रवृत्ति बनी रही तो ‘विकसित भारत’ का सपना महज नारा बनकर रह जाएगा। नौकरशाही को अपने हर निर्णय में नागरिकों की आकांक्षाओं को केंद्र में रखना होगा, तभी वह जनविश्वास अर्जित कर सकेगी।
समय आ गया है कि नौकरशाही पुनर्परिभाषित हो—न केवल संगठनात्मक रूप में बल्कि वैचारिक रूप में भी। उसे प्रौद्योगिकी-सक्षम, परिणामोन्मुख और संवेदनशील बनना होगा। यह परिवर्तन केवल निर्देशों या कानूनों से संभव नहीं, बल्कि नेतृत्व के साथ-साथ जमीनी अधिकारियों की कार्यशैली में बदलाव से होगा। यही परिवर्तन भारत को आत्मनिर्भर और समृद्ध राष्ट्र बनाएगा।